मज़ा विसाल का क्या गर फ़िराक़-ए-यार न हो नहीं है नशे की कुछ क़द्र अगर ख़ुमार न हो न रोए ता कोई आशिक़ ये हुक्म है उस का कि शम्अ' भी मिरी महफ़िल में अश्क-बार न हो जो हिचकी आई तो ख़ुश मैं हुआ कि मौत आई किसी को यार का इतना भी इंतिज़ार न हो ज़क़न है सेब तो उन्नाब है लब-ए-शीरीं नहीं है सर्व वो ख़ुश-क़द जो मेवा-दार न हो वो हूँ मैं मोरिद-ए-नफ़रत कि दरकिनार है यार पए फ़िशार कभी गोर हम-कनार न हो न आए कुंज-ए-लहद में भी मुझ को ख़्वाब-ए-अदम अगर सिरहाने कोई ख़िश्त-ए-कू-ए-यार न हो ब-रंग-ए-हुस्न-ए-बुताँ है दिल-ए-शगुफ़्ता मिरा जो इस चमन में ख़िज़ाँ हो तो फिर बहार न हो गई है कैसी ज़माने से रस्म-ए-सर-गर्मी अजब नहीं है जो पत्थर में भी शरार न हो न हँसने से कभी हमराज़ पोश वाक़िफ़ हों ब-रंग-ए-ग़ुंचा जिगर जब तलक फ़िगार न हो तिरी मिज़ा की जो तश्बीह उस से तर्क करें किसी के तीर से कोई कभी फ़िगार न हो दम-ए-अख़ीर तो कर लें नज़ारा जी भर के इलाही ख़ंजर-ए-सफ़्फ़ाक आब-दार न हो यही है क़ुल्ज़ुम-ए-ग़म में मिरी दुआ यारब क़याम इस में कोई भी हबाब-दार न हो वो सुब्ह सीना-ए-सद-चाक में है दाग़-ए-जुनूँ कि जिस से दीदा-ए-ख़ुर्शेद भी दो-चार न हो हवस उरूज की ले जाएँ गर ये दुनिया से कभी बुलंद हवा से कोई ग़ुबार न हो कमाल-ए-सूरत-ए-बे-दर्द से तनफ़्फ़ुर है न देखें हम कभी उस गुल को जिस में ख़ार न हो हज़ारों गोर की रातें हैं काटनी 'नासिख़' अभी तो रोज़-ए-सियह में तू बे-क़रार न हो