मजबूर तो बहुत हैं मोहब्बत में जी से हम ये और बात है न कहें कुछ किसी से हम इक शाम हम-सुख़न थे चमन में कली से हम यादश-ब-ख़ैर फिर न मिले ज़िंदगी से हम अल्लाह रे वो वक़्त वो मजबूरी-ए-हयात रो रो के हो रहे थे जुदा जब किसी से हम तकलीफ़-ए-इल्तिफ़ात न कर ऐ निगाह-ए-नाज़ अब मुतमइन हैं अपने ग़म-ए-ज़िंदगी से हम हैं याद उस नज़र की तग़ाफ़ुल-शिआ'रियाँ बा-वस्फ़-ए-इर्तिबात भी थे अजनबी से हम बढ़ती ही जा रही हैं अबस बद-गुमानियाँ ना-आश्ना नहीं हैं तिरी बरहमी से हम एक इक अदा-ए-हुस्न-ए-गुरेज़ाँ नज़र में है पामाल हो रहे हैं बड़ी बे-रुख़ी से हम हर-सू है एक आलम-ए-वहशत शब-ए-फ़िराक़ घबरा रहे हैं सिलसिला-ए-तीरगी से हम ग़ारत किया है जिस ने हमारा सुकून-ए-दिल 'मुज़्तर' सुकून-ए-दिल के हैं ख़्वाहाँ उसी से हम