मजमुआ-ए-ख़याल परेशाँ किए हुए बैठा हूँ फिर जुनूँ को मैं मेहमाँ किए हुए मैं लिख रहा हूँ शरह-ए-हयात-ए-अलम-नसीब क़तरात ख़ून-ए-दिल सर-ए-उनवाँ किए हुए देता हूँ फिर ख़याल को मैं दावत-ए-जुनूँ ज़र्रों को अपने दिल के बयाबाँ किए हुए वहशत ब-क़ैद-ए-इश्क़ नहीं मुद्दतें हुईं फिरता हूँ यूँही चाक गरेबाँ किए हुए ऐ आफ़्ताब-ए-हश्र ज़रा इक नज़र इधर लाया हूँ दिल के दाग़ नुमायाँ किए हुए अल्लाह का शुक्र है कि खड़ा है कोई क़रीब मुश्किल को वक़्त-ए-नज़अ' की आसाँ किए हुए क्यों अहल-ए-हश्र कोई भी कुछ पूछता नहीं फिरते हैं तर लहू में वो दामाँ किए हुए