मजरूह है दिल सीने में सद-चाक जिगर भी कुछ कम नहीं क़ातिल तिरा अंदाज़-ए-नज़र भी आते हुए डरते हैं सियह-ख़ाने में मेरे कतरा के निकल जाते हैं अंजुम भी क़मर भी क्यों दरपय-ए-ईज़ा है शब-ए-हिज्र में ज़ालिम कुछ तुझ को मोअज़्ज़िन नहीं अल्लाह का डर भी जो आप कहें सब वो दुरुस्त और बजा है ऐबों के सिवा मुझ में नहीं कोई हुनर भी जाएँ तो कहाँ जाएँ रिहा हो के क़फ़स से परवाज़ के क़ाबिल न रहे बाल भी पर भी ये ग़म की हमागीरी का आलम है शब-ए-हिज्र मग़्मूम नज़र आते हैं दीवार भी दर भी इस तरह से नाकाम मोहब्बत में न होता ऐ आह अगर होता ज़रा तुझ में असर भी अब ढंग नए सीखे हैं खुल खेले हैं बिल्कुल सुनते हैं वो जाने लगे अग़्यार के घर भी इक आह नहीं है मिरी रुस्वाई का बाइ'स बदनाम करेंगे मुझे ये दीदा-ए-तर भी ग़म-ख़ाने में मेरे कोई तफ़रीक़ नहीं है जिस रंग की है शाम यहाँ वैसी सहर भी आ जाता है इक वक़्त मोहब्बत में कुछ ऐसा रहती है नहीं मुझ को ज़रा ख़ुद की ख़बर भी काटे नहीं कटती है शब-ए-ग़म की मुसीबत इस रात की होगी कहीं अल्लाह सहर भी 'इशरत' मिरी उल्फ़त का यक़ीं उन को न होगा मैं नज़्र करूँ अपना अगर काट के सर भी