मकाँ से ला-मकाँ तक आ गए हैं कहाँ से हम कहाँ तक आ गए हैं जहाँ जलते हैं पर होश-ओ-ख़िरद के जुनूँ में हम वहाँ तक आ गए हैं भड़क उट्ठी है कैसी आतिश-ए-गुल शरारे आशियाँ तक आ गए हैं ख़ुलूस-ए-दोस्ती पर मरने वाले हयात-ए-जाविदाँ तक आ गए हैं हमारी गुम-रही मंज़िल निशाँ है तजस्सुस में कहाँ तक आ गए हैं वहाँ दिल में मोहब्बत की कमी है जहाँ शिकवे ज़बाँ तक आ गए हैं तमाशा-ए-बहार-ए-गुल की शैदा बहार-ए-गुल-रुख़ाँ तक आ गए हैं मक़ाम अपना नहीं मा'लूम लेकिन जहाँ तुम हो वहाँ तक आ गए हैं किसी के जल्व-हा-ए-हैरत-अंगेज़ नज़र के इम्तिहाँ तक आ गए हैं न पहुँचे ख़ाना-ए-दिल के मकीं तक ज़मीं से आसमाँ तक आ गए हैं गुज़र कर हम ख़ुदी वहम-ओ-गुमाँ से ख़ुदा जाने कहाँ तक आ गए हैं 'रिशी' मंज़िल नहीं अब दूर हम से ग़ुबार-ए-कारवाँ तक आ गए हैं