मक़्दूर नहीं उस की तजल्ली के बयाँ का जूँ शम्अ सरापा हो अगर सर्फ़ ज़बाँ का पर्दे को तअय्युन के दर-ए-दिल से उठा दे खुलता है अभी पल में तिलिस्मात जहाँ का टुक देख सनम-ख़ाना-ए-इश्क़ आन के ऐ शैख़ जूँ शम-ए-हरम रंग झलकता है बुताँ का इस गुलशन-ए-हस्ती में अजब दीद है लेकिन जब चश्म खुली गुल की तो मौसम है ख़िज़ाँ का दिखलाइए ले जा के तुझे मिस्र का बाज़ार लेकिन नहीं ख़्वाहाँ कोई वाँ जिंस-ए-गिराँ का हस्ती से अदम तक नफ़स-ए-चंद की है राह दुनिया से गुज़रना सफ़र ऐसा है कहाँ का 'सौदा' जो कभू गोश से हिम्मत के सुने तो मज़मून यही है जरस-ए-दिल की फ़ुग़ाँ का