मक़ाम-ए-अम्न क़फ़स क्या कि आशियाँ भी नहीं सुकूँ वहाँ भी नहीं था सुकूँ यहाँ भी नहीं मिरा कलाम पयाम-ए-अमल न हो लेकिन तमाम-तर निगह-ओ-दिल की दास्ताँ भी नहीं मिरी निगाह में मंज़िल है आम इंसाँ की मक़ाम-ए-दार नहीं बज़्म-ए-मह-रुख़ाँ भी नहीं ये बार शिद्दत-ए-एहसास का है नादानो गराँ है ज़ीस्त मगर इस क़दर गराँ भी नहीं है नक़्श-ए-ख़ून-ए-जिगर से हर एक फ़न को सबात जो ये नहीं तो कोई नक़्श-ए-जावेदाँ भी नहीं