मक़ाम-ए-हिज्र कहीं इम्तिहाँ से ख़ाली है कहीं ज़मीं भी किसी आसमाँ से ख़ाली है नशात-ए-ग़म में तो दर्द-ए-निहाँ तलाश न कर नशात-ए-ग़म कभी दर्द-ए-निहाँ से ख़ाली है उरूज-ए-ग़म मिरे सोज़-ए-जिगर से आ पूछा मक़ाम-ए-दिल कहीं सोज़-ए-निहाँ से ख़ाली है ख़याल उस का मैं शायद समझ नहीं पाया मिरा ख़याल तो इश्क़-ए-बुताँ से ख़ाली है इक ऐसी बात ही तस्कीन-ए-क़ल्ब बख़्शे है 'निसार' दिल मिरा वहम-ओ-गुमाँ से ख़ाली है