मक़ाम-ए-होश से गुज़रा मकाँ से ला-मकाँ पहुँचा तुम्हारे इश्क़ में दीवाना-ए-मंज़िल कहाँ पहुँचा नज़र की मंज़िलों में बस तुम्हीं हुस्न-ए-मुजस्सम थे मता-ए-आरज़ू ले कर मैं उल्फ़त में जहाँ पहुँचा उसी ने इश्क़ बन कर दो-जहाँ को फूँक डाला है वो शो'ला जो तिरी नज़रों से दिल के दरमियाँ पहुँचा जुनूँ ज़ाहिर हुआ रुख़ पर ख़ुदी पर बे-ख़ुदी छाई ब-क़ैद-ए-होश मैं जब भी क़रीब-ए-आस्ताँ पहुँचा तुम अपनी जुस्तुजू में ये मिरा शौक़-ए-तलब देखो तुम्हारे इश्क़ में लुट कर भी तुम तक जान-ए-जाँ पहुँचा तअ'ल्लुक़ तोड़ कर जान-ए-जहाँ सारे ज़माने से मैं पहुँचा था जहाँ मुझ को तिरी ख़ातिर वहाँ पहुँचा 'फ़ना' वो जल्वा-गर होने लगे हर बज़्म-ए-ईमाँ में मिरा दिल ले के जब मुझ को सर-ए-कू-ए-बुताँ पहुँचा