मक़ाम-ए-नूर हो कर रह गया है वो हम से दूर हो कर रह गया है चराग़-ए-दिल बुझा तो तन-बदन में धुआँ महसूर हो कर रह गया है ख़ुदी में बे-ख़ुदी को छू लिया था नशा काफ़ूर हो कर रह गया है हवा घेरे हुए है ताक़-ए-शब को दिया म'अज़ूर हो कर रह गया है जो तारा ख़ाक से होना था ज़ाहिर वही मस्तूर हो कर रह गया है ये दिल हद से गुज़रना चाहता था मगर मजबूर हो कर रह गया है मिरा ग़म तेरी तारीख़-ए-करम में फ़क़त मज़कूर हो कर रह गया है उन्ही हाथों से बनना और मिटना यही दस्तूर हो कर रह गया है