मकान मिलते हैं क्या ला-मकाँ नहीं मिलता निशान लाख हैं लेकिन निशाँ नहीं मिलता कहीं भी जाएँ कहाँ आसमाँ नहीं मिलता लहद ही एक जगह है जहाँ नहीं मिलता हुई है रौशन उसी से हमारी पेशानी जबीन-ए-अर्श को जो आस्ताँ नहीं मिलता सुनी है मैं ने भी रंगीं-नवाई-ए-नाक़ूस गले से मेरे ये वक़्त-ए-अज़ाँ नहीं मिलता ये चाहता हूँ कि बे-मुँह के आबलों से निभे कहीं भी ख़ार कोई बे-ज़बाँ नहीं मिलता बहार आते ही फूलों ने छावनी छाई कि ढूँढता हूँ मुझे आशियाँ नहीं मिलता ये कह रहा है तरन्नुम हवा की मौजों का ख़मोश फूलों का हुस्न-ए-बयाँ नहीं मिलता ये शब गुज़ार-ए-हरम है ज़रूर ऐ साक़ी किसी से रात को पीर-ए-मुग़ाँ नहीं मिलता चले न काम भरे ख़ुम अगर न साथ चलें हरम की राह में कोसों कुआँ नहीं मिलता शफ़क़ खुली न सर-ए-क़ब्र पा-ए-रंगीं से ज़मीं से झुक के कभी आसमाँ नहीं मिलता ख़ुदा के वास्ते पहुँचा दे कोई मंज़िल तक बिछड़ गया हूँ मुझे कारवाँ नहीं मिलता ज़बान-ए-हाल में इन की अजब लताफ़त है किसी से फूलों का हुस्न-ए-बयाँ नहीं मिलता चले न हाथ गले पर तो ख़ुद ही चल जाए उन्हें गिला है कि ख़ंजर रवाँ नहीं मिलता 'रियाज़' छाँट लिया उस ने मुझ से बूढे को कोई भी दुख़्तर-ए-रज़ को जवाँ नहीं मिलता