मक़्तल से जब गुज़र के हरीफ़ाना आइए इक दश्त-ए-बे-कनार में फिर घर बनाइए तारीक हो न पाए कभी दामन-ए-फ़लक पलकों से ता-ब-सुब्ह सितारे जलाइए होने न पाए फूलों का मुहताज गुलिस्ताँ दिल के हज़ार ज़ख़्म हमेशा खिलाइए चेहरों को क़ैद से हुए आज़ाद गर कभी बिखरे हुए वजूद को कैसे बचाइए साहिल न दे सका है सहारा तो क्या हुआ गिर्दाब को असीर-ए-सफ़ीना बनाइए