मख़मली ख़्वाब का आँखों में न मंज़र फैला ज़हर ही ज़हर मिरे जिस्म के अंदर फैला सब्ज़ मौसम में भी हो जिस की शबाहत पीली इस चमन में कहीं शो'ले कहीं पत्थर फैला ख़ौफ़नाकी असर-अंदाज़ हुआ करती है इस को अख़बार की मानिंद न घर घर फैला हो ये मुमकिन तो मिरे जिस्म के अंदर भी उतर रेज़ा रेज़ा मुझे हर सम्त बराबर फैला इख़तिराअा'त के बाइस ही जहाँ में अब तक नए एहसास का बे-पायाँ समुंदर फैला वज्ह-ए-तकलीफ़ न बन जाए ख़ला की ख़्वाहिश अब उड़ानों के लिए पर न कबूतर फैला लाख सूरज की इनायात रहें मेरे साथ मेरा साया न मिरे क़द के बराबर फैला