मकीं और भी हैं मकाँ और भी हैं यही दो-जहाँ क्या जहाँ और भी हैं मक़ामात-ए-दैर-ओ-हरम से गुज़र कर तिरी अज़्मतों के निशाँ और भी हैं किए जाइए सई-ए-तस्ख़ीर-ए-फ़ितरत अभी राज़-हा-ए-निहाँ और भी हैं ज़रा ख़त्म हो कर तौक़-ओ-सलासिल ज़बाँ पर लिए दास्ताँ और भी हैं मिटा दो मिरा नक़्श-ए-हस्ती नहीं ग़म मिरी ज़िंदगी के निशाँ और भी हैं समेट अपना दामन न आग़ोश-ए-मंज़िल कि रहरव पस-ए-कारवाँ और भी हैं नहीं सिर्फ़ ज़ाहिद ही जल्वों का महरम तिरे हुस्न के राज़दाँ और भी हैं