मलाल ये है मसाइल का हल बनाते हुए गँवा के बैठ गए आज कल बनाते हुए घिसे-पिटे हुए लहजों में कुछ नहीं रक्खा नया ही रंग निकालो ग़ज़ल बनाते हुए ब-ज़ाहिर एक ही पल में बदल गया सब कुछ कई ज़माने लगे एक पल बनाते हुए कहाँ से ढूँड के लाओगे अब मिरे जैसा ख़याल करते मुझे बे-बदल बनाते हुए अजीब शो'ला-ए-एहसास की लपेट में हैं झुलसते जाते हैं काग़ज़ पे थल बनाते हुए ये रेगज़ार ये अंधी हवा ये फूल सी जान बिखर चला हूँ इरादे अटल बनाते हुए लहू में लहर उठाती है उस की याद तो क्या सफ़ीने चलते हैं दरिया में छल बनाते हुए पता है कितनी मशक़्क़त उठानी पड़ती है किसी ख़याल को ज़र्बुल-मसल बनाते हुए