मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं ऐसा गया कि फेर न पाई ख़बर कहीं आलम में हैं असीर मोहब्बत के हर कहीं लेकिन सितम किसू पे नहीं इस क़दर कहीं खोली थी चश्म-दीद को तेरी प जूँ हुबाब अपने तईं मैं आप न आया नज़र कहीं जूँ ग़ुंचा फ़िक्र जम्अ न कर टुक तू गुल को देख क़िस्मत की खो सके है परेशानी ज़र कहीं रहने दो मेरी नाश को हो जाए ता-ग़ुबार ले जाएगी उड़ा के नसीम-ए-सहर कहीं मसरफ़ है सब ये बालिश-ए-सय्याद का तिरे बिस्मिल न भरियो ख़ून से तू बाल-ओ-पर कहीं रोती है क्या गुलों को तू शबनम इधर तो देख टुकड़े है इस तरह से किसी का जिगर कहीं करता था कल गली में वो अपनी ख़िराम-ए-नाज़ इस में जो आ के पड़ती है मुझ पर नज़र कहीं कहने लगा ये देख के अहवाल को मिरे बद-नाम तू किसी के तईं याँ न कर कहीं क्या हत्या तुझे यहीं देनी है ऐ अज़ीज़ इतना पड़ा है मुल्क-ए-ख़ुदा जा के मर कहीं 'क़ाएम' ये फ़ैज़-ए-सोहबत-ए-'सौदा' है वर्ना मैं तरही ग़ज़ल से 'मीर' की आता था बर कहीं