ममनूँ ही रहा उस बुत-ए-काफ़िर की जफ़ा का शिकवा न किया दिल ने कभू शुक्र ख़ुदा का आज़ा के तनासुब का न वारफ़्ता हो इतना आँखें हैं तो रह हैरती अंदाज़ ओ अदा का हर दम है हदफ़ नावक-ए-बेदाद का तेरी पत्थर का कलेजा है मगर अहल-ए-वफ़ा का ताबूत ही देखा न मिरा आँख उठा कर क्या शर्म है कुश्ता हूँ मैं उस शर्म ओ हया का पास उस के बना दीजो मिरी आँख भी नक़्क़ाश गर खींचे है तू नक़्श-ए-रुख़ उस हूर-लिक़ा का किस तरह मैं अब सर पे भला ख़ाक न डालूँ देखूँ हूँ निशाँ दर पे तिरी सद कफ़-ए-पा का किस बेकसी की मर्ग है 'रासिख़' का भी मरना नाश उस की पे कोई न हुआ महव अज़ा का