पुर-सोज़ तरन्नुम में क्या शम्अ' ग़ज़ल-ख़्वाँ है लौ झूमती जाती है परवाना भी रक़्साँ है देरीना ख़राबों पर ता'मीर-ए-गुलिस्ताँ है बा-वस्फ़ हुजूम-ए-गुल रंगीनी-ए-वीराँ है शो'ला हो कि ख़ुश्बू हो तासीर में यकसाँ है हर शम्अ' महकती है हर फूल फ़रोज़ाँ है दिल के किसी जज़्बे को क्या नाम अभी से दूँ जो उन की निगाहों से टकराए वो अरमाँ है आसूदा ज़माने की बे-राह-रवी तौबा वो मश्क़-ए-सितम जब तक जारी रहे एहसाँ है याद आती है राहों में शादाबी-ए-नख़लिस्ताँ फिर पा-ए-बरहना है पुर-ख़ार बयाबाँ है ख़ामोशी के आलम में दिल डूबता जाता है ठहरी हुई मौजों के दामन में भी तूफ़ाँ है ऐ बज़्म-ए-सुख़न तेरा ऐसे में ख़ुदा-हाफ़िज़ पलकें वो झुकी सी हैं 'मानी' भी ग़ज़ल-ख़्वाँ है