मंज़िल के दूर दूर तक आसार तक भी नहीं मैं राह में ठहरने को तय्यार भी नहीं हालात कह रहे हैं कि इस दौर-ए-नौ के लोग सोए हुए नहीं हैं तो बेदार भी नहीं मुझ को अगर पढ़ा तो भुला पाएगा न वो मैं हर नज़र में सुब्ह का अख़बार भी नहीं जो दूसरों के घर में उजाला न कर सके मैं ऐसी रौशनी का तलबगार भी नहीं 'नाज़िर' मता-ए-दिल ये कहाँ ले के आ गए पहली सी अब वो गर्मी-ए-बाज़ार भी नहीं