मंज़िल सफ़र-ए-इश्क़ की ज़िन्हार न टूटे जब तक कमर-ए-क़ाफ़िला-सालार न टूटे इस पंद से दिल नासेह-ए-दीं-दार न टूटे बुत तोड़ने में का'बे की दीवार न टूटे बे-फ़िक्र रहे बंद-ए-नक़ाब-ए-रुख़-ए-जानाँ हम से कभी क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-गुलज़ार न टूटे जब तक न गवारा हो तुझे नज़्अ' की तल्ख़ी परहेज़ तिरा ऐ दिल-ए-बीमार न टूटे हर रोज़ हो जब सैकड़ों उश्शाक़ का चौरंग ऐ शोख़ कहाँ तक तिरी तलवार न टूटे सर पटकूँ जो दीवार से कहता है वो ज़ालिम बस बस मिरे घर की कहीं दीवार न टूटे बेजा है तिरी गर्मी-ए-बाज़ार का शिकवा क्यूँ जिंस नई पा के ख़रीदार न टूटे क़िस्मत में हो गो मंज़िल-ए-मक़्सद का पहुँचना पर आबला-ए-पा में सर-ए-ख़ार न टूटे आसाँ है 'शहीदी' की अगर दिल-शिकनी हो पर शर्त ये है ख़ातिर-ए-अग़्यार न टूटे