'तल्ख़' सुना है जी तिरा अर्सा हुआ निढाल है ख़ुद से ज़रा निकल के देख एक सा सब का हाल है सामने आ गया वो जब कर गए दर-गुज़र उसे अब ये तलाश है अबस मेरा यही ख़याल है राह तकेगा क्या कोई आ भी सकेगा क्या कोई चल पड़ें या रुके रहें सोचना तक मुहाल है वक़्त-शिकन कोई कहाँ वक़्त के हाथ पड़ गया इस का न कुछ हिसाब है और न कोई मिसाल है अपनी हर एक चाल पर तुम जो रहे हो ख़ंदा-ज़न मात है देखते हो क्या आओ तुम्हारी चाल है रद्द ओ क़ुबूल तेरा हक़ रद्द-ए-अमल हमारा हक़ एक भी मुल्तजी नहीं सब की नज़र सवाल है 'तल्ख़' मैं इस का आज तक ढूँड नहीं सका जवाज़ दिल को ये क्या सुकून है और ये क्या मलाल है