मंसब न कुलाह चाहता हूँ तन्हा हूँ गवाह चाहता हूँ ऐ अजर-ए-अज़ीम देने वाले! तौफ़ीक़-ए-गुनाह चाहता हूँ मैं शोलगी-ए-वजूद के बीच इक ख़त्त-ए-सियाह चाहता हूँ डरता हूँ बहुत बुलंदियों से पस्ती से निबाह चाहता हूँ वो दिन कि तुझे भी भूल जाऊँ उस दिन से पनाह चाहता हूँ