हुए जो पाँव से मा'ज़ूर हम जबीं से चले जुनून-ए-शौक़ में ये सिलसिले हमीं से चले हमारा सर ही हमेशा निशाना बनता है किसी भी सम्त से पत्थर चले कहीं से चले खुले तरीक़े से हम पर चले नहीं ख़ंजर अगर चले भी तो यारों की आस्तीं से चले ज़रा भी दोष नहीं इस में आसमानों का बगूले फ़ित्नों के जब भी चले ज़मीं से चले फ़राज़-ए-दार की अज़्मत में कुछ कलाम नहीं बुलंद-बख़्ती के सब सिलसिले यहीं से चले ये पेश-रफ़्त की है शर्त-ए-अव्वलीं 'मंशा' कि चलने वाला अटल अज़्म-ए-पुर-यक़ीं से चले