मानूस हो गए हैं ग़म-ए-ज़िंदगी से हम हम को ख़ुशी मिले तो न लेंगे ख़ुशी से हम फूलों की आरज़ू न करेंगे किसी से हम काँटे समेट लाए हैं उन की गली से हम हम शाम-ए-ग़म को सुब्ह-ए-मसर्रत का नाम दें सूरज करें तुलूअ' न क्यूँ तीरगी से हम सच के लिए हम आज के सुक़रात बन गए पीते हैं जाम ज़हर का अपनी ख़ुशी से हम हम मिल के ख़ुद से ख़ुद को भी पहचानते नहीं अपने लिए भी बन गए हैं अजनबी से हम ग़म खाते खाते हो गया मानूस-ए-ग़म मिज़ाज हो जाते हैं फ़सुर्दा-ओ-महवर ख़ुशी से हम हम को वतन में अब कोई पहचानता नहीं अपने वतन में फिरते हैं अब अजनबी से हम बन जाएँ क्यूँ न ख़ुद ही नुमूद-ए-सहर की ज़ौ 'आसी' ज़िया तलब न करें तीरगी से हम