मर्ग-ए-अग़्यार लब पे ला न सका वो क़सम हूँ जो यार खा न सका इस क़दर ज़ोफ़ था कि तेरा नाज़ थी तमन्ना मगर उठा न सका मर के ठंडा कहीं न हो जाए इस लिए वो मुझे जिला न सका बुख़्ल देखो तो मेरी तुर्बत पर एक आँसू भी वो गिरा न सका उठ न जाए रक़ीब महफ़िल से मुझ को पहलू में वो बिठा न सका था जो अश्क-ए-अज़ीज़ ख़ातिर में दीदा-ए-तर मुझे बहा न सका हुस्न तेरा वो माह-ए-ताबाँ था अब्र-ए-गेसू जिसे छुपा न सका दार-ए-फ़ानी मक़ाम-ए-लग़्ज़िश है कोई अपना क़दम जमा न सका न मिला कोई वक़्त-ए-तन्हाई हाल-ए-दिल यार को सुना न सका जानता था पड़े रहेंगे वहीं इस लिए यार घर बता न सका न मना लड़ के वो बहुत चाहा ऐसे बिगड़े कि फिर बना न सका देख कर बद-दिमाग़ियाँ उन की नामा-बर ख़त मिरा पढ़ा न सका किस तरह अर्ज़-ए-मुद्दआ करता ग़ैर को पास से हटा न सका आरज़ू-मंद रह गया मजनूँ मेरे आगे फ़रोग़ पा न सका कीना शौक़-ए-रक़ीब था ऐ दोस्त कि तबीअत से तेरी जा न सका क्या नदामत हुई है क़ातिल से नाज़-ए-ख़ंजर गुलू उठा न सका ख़ौफ़ था ग़श उन्हें न आ जाए मैं शिगाफ़-ए-जिगर दिखा न सका ना-तवाँ था 'नसीम' इस दर्जा कि वो ज़ंजीर-ए-पा हिला न सका