मरीज़-ए-हिज्र को सेहत से अब तो काम नहीं अगरचे सुब्ह को ये बच गया तो शाम नहीं रखो या न रखो मरहम उस पे हम समझे हमारे ज़ख़्म-ए-जुदाई को इल्तियाम नहीं जिगर कहीं है कहीं दिल कहीं हैं होश ओ हवास फ़क़त जुदाई में इस घर का इंतिज़ाम नहीं कोई तो वहशी है कहता कोई है दीवाना बुतों के इश्क़ में अपना कुछ एक नाम नहीं सहर जहाँ हुई फिर शाम वाँ नहीं होती बसान-ए-उम्र-ए-रवाँ अपना इक मक़ाम नहीं किया जो वादा-ए-शब उस ने दिन पहाड़ हुआ ये देखियो मिरी शामत कि होती शाम नहीं वही उठाए मुझे जिस ने मुझ को क़त्ल किया कि बेहतर इस से मिरे ख़ूँ का इंतिक़ाम नहीं उठाया दाग़-ए-गुल अफ़्सोस तुम ने दिल पे 'सुरूर' मैं तुम से कहता था गुलशन को कुछ क़याम नहीं