मसाफ़तों में धूप और छाँव का सवाल क्या सफ़र ही शर्त है तो फिर उरूज क्या ज़वाल क्या फ़िराक़-साअ'तों के ज़ख़्म रूह तक पहुँच चुके मयस्सर आएँ भी तो अब मसाई-ए-विसाल क्या हुनर को धूप जंगलों की मुस्कुराहटों में है गुलाब बस्तियों में हँसते रहने का कमाल क्या उमीद ही तो दिल-शजर की आख़िरी असास थी शगूफ़ा ये भी हो गया ख़िज़ाँ से पाएमाल क्या तमाम-शहर ही हवा के दोश पर सवार है दिखाए कोई ज़ख़्म क्या सुनाए कोई हाल क्या