मसर्रत का हमेशा एक ही आलम नहीं होता

मसर्रत का हमेशा एक ही आलम नहीं होता
करम होता तो है उन का मगर पैहम नहीं होता

ख़ुशी का ग़म जिन्हें होता है समझो ग़म-नसीब उन को
जिन्हें ग़म की ख़ुशी होती है उन को ग़म नहीं होता

न ले जाता जो मजनूँ आलम-ए-दीवानगी हम से
तो उस का ज़िक्र-ए-ख़ैर अफ़साना-ए-आलम नहीं होता

कहाँ है तू बुराई से बुराई मिट नहीं सकती
अरे ग़ाफ़िल अँधेरे से अंधेरा कम नहीं होता

यही वो वक़्त है जब आदमी को होश आता है
ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल दिल-ए-पुर-ग़म नहीं होता

बुरा जब वक़्त आता है तो इस दुनिया-ए-उल्फ़त में
कोई मोनिस नहीं होता कोई हमदम नहीं होता

तसल्ली से कभी तस्कीन-ए-ख़ातिर हो नहीं सकती
जुनून-ए-शौक़ बढ़ जाता है इस से कम नहीं होता

फ़ज़ा-ए-बाग़-ए-हस्ती में ख़िज़ाँ भी है बहारें भी
कहाँ ख़ुशियाँ नहीं होतीं कहाँ मातम नहीं होता

निबाह आसाँ नहीं दुनिया की रस्म-ए-दोस्त-दारी का
कोई दम-साज़ होता है तो हम में दम नहीं होता

फ़ना के बा'द मिलता है सुकून-ए-राहत-ए-मंज़िल
जहाँ शीराज़ा-ए-हस्ती कभी बरहम नहीं होता

कोई मिलता है जब राह-ए-तलब में रहबर-ए-कामिल
तो हम को दूरी-ए-मंज़िल का भी कुछ ग़म नहीं होता

हमारे एक दम पर एक दम जो कुछ गुज़रती है
मोहब्बत में कभी ऐसा तो ऐ हमदम नहीं होता

तुम्हीं इमदाद को 'ख़ुशतर' की आ जाते हो मुश्किल में
सहारा जब कोई ऐ सरवर-ए-आलम नहीं होता


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