मसदर-ए-इश्क़ की गर्दान मुकम्मल कर के By Ghazal << ये ज़िंदगी तो मुसलसल सवाल... तुझ को देखा है जो दरिया न... >> मसदर-ए-इश्क़ की गर्दान मुकम्मल कर के जा रहे हैं तिरी पहचान मुकम्मल कर के कम से कम एक ख़ुदा और मुझे चाहिए था मैं अधूरा रहा ईमान मुकम्मल कर के उम्र-भर जागने वालों को भी हाथ आया क्या सो गए ख़्वाब का नुक़सान मुकम्मल कर के Share on: