मस्जिद में भी जाता हूँ तो मय-ख़ाना समझ कर हर ज़र्फ़-ए-वज़ू लेता हूँ पैमाना समझ कर ले बोसा-ए-ज़ुल्फ़ ऐ दिल-ए-फ़रज़ाना समझ कर उलझें न कहीं तुझ से वो दीवाना समझ कर लौ शम्अ-रुख़ों से न लगा ऐ दिल-ए-नादाँ आशिक़ को बुलाते हैं वो परवाना समझ कर गर्दिश मिरी क़िस्मत की तुझे चैन न देगी ऐ चर्ख़ मुझे पीस न तू दाना समझ कर अल्लह रे तजाहुल मुझे देखा जो सर-ए-बज़्म मुँह फेर लिया यार ने बेगाना समझ कर आने को तो आए वो मिरे ख़ाना-ए-दिल में दम भर भी न ठहरे यहाँ वीराना समझ कर किस दर्जा त'अल्लुक़ है मिरे दिल को बुतों से का'बा में भी जाता हूँ तो बुत-ख़ाना समझ कर दिलचस्प कुछ ऐसा है कि दुश्मन की ज़बाँ से सुनते हैं मिरा ज़िक्र वो अफ़्साना समझ कर देते तो हो दिल उस बुत-ए-बे-मेहर-ओ-वफ़ा को लेकिन ज़रा ऐ 'साबिर'-ए-फ़रज़ाना समझ कर