मस्जिद-ओ-मंदिर कलीसा सब में जाना चाहिए दर कहीं का हो मुक़द्दर आज़माना चाहिए मुझ को रोने दो मुझे रोने में मिलता है मज़ा मुस्कुराओ तुम कि तुम को मुस्कुराना चाहिए ख़त्म पर मेरा सफ़र है डगमगाते हैं क़दम आगे बढ़ कर उन को मेरा दिल बढ़ाना चाहिए ज़िंदगी भर चल के हम आए हैं मंज़िल के क़रीब दो-क़दम अब चल के मंज़िल को भी आना चाहिए होश आया ज़िंदगी का बार उठा लेने के बा'द बोझ जितना उठ सके उतना उठाना चाहिए रख दिया इक दिन मैं जिस घर को खंडर कर के 'नज़ीर' उस को बनने के लिए अब इक ज़माना चाहिए