सच के इज़हार का शे'रों को बहाना जाना बच रहे यूँ कि ज़माने ने फ़साना जाना सख़्त मा'तूब रहे और ख़ता इतनी थी जो ख़ुदा न था उसे हम ने ख़ुदा न जाना इस क़दर भी न जरी थे कि उलझते सब से शोर-ए-शब-ख़ूँ को मगर बाँग-ए-दरा न जाना अब के इल्ज़ाम लगा हम पे खुली आँखों का जो नज़र आया उसे उस से सिवा न जाना कम ही मिलते हो मगर ये है यक़ीं का आलम हम ने पल-भर को तुम्हें ख़ुद से जुदा न जाना मैं वो ना-शुक्र कि हर बार मुलाक़ात के बा'द मैं ने हर लम्हा-ए-फ़ुर्क़त को ज़माना जाना रहम खाते हैं हैं मिरे हाल पे अहल-ए-दुनिया मैं ने ईमान को दुनिया में ख़ज़ाना जाना