मासूम दिल की हसरतें लफ़्ज़ों में ढाल कर रखे हैं हम ने धूप में जुगनू निकाल कर है शिद्दत-ए-तलब का मिरे अलमिया यही रख दे न मेरी प्यास समुंदर उबाल कर चलती नहीं मोहब्बतों में जल्द-बाज़ियाँ होते नहीं ये फ़ैसले सिक्के उछाल कर वा'दों के जो खिलौने थमा कर गया था तू मैं ने भी रख दिए हैं कहीं पर सँभाल कर फिर यूँ हुआ कि सब्ज़ हो उठा वो रेगज़ार निकले जब उन के हाथ में हम हाथ डाल कर तुझ से जिरह करूँगा मगर शर्त है यही जिस का जवाब तू हो मुझे वो सवाल कर इक नाज़नीं का दिल हुआ है गुम-शुदा कहीं और हम खड़े हैं सामने जेबें निकाल कर