मत हो मग़रूर ऐ कि तुझ में ज़ोर है याँ सुलैमाँ के मुक़ाबिल मोर है मर गए पर भी है सौलत फ़क़्र की चश्म-ए-शीर अपना चराग़-ए-गोर है जब से काग़ज़-ए-बाद का है शौक़ उसे एक आलम उस के ऊपर डोर है रहनुमाई शैख़ से मत चश्म रख वाए वो जिस का असा कश-कोर है ले ही जाती है ज़र-ए-गुल को उड़ा सुब्ह की भी बाव-बादी चोर है दिल खिंचे जाते हैं सारे उस तरफ़ क्यूँके कहिए हक़ हमारी और है था बला हंगामा-आरा 'मीर' भी अब तलक गलियों में उस का शोर है