मत पूछ मसीहा कि मैं क्या ढूँड रही हूँ इक दर्द-ए-मुसलसल की दवा ढूँड रही हूँ बे-साख़्ता जो खोल दे इस दिल के दरीचे मानूस सी वो एक सदा ढूँड रही हूँ सोए हुए दिल के जो एहसास जगा दे इक़बाल का वो बाँग-ए-दरा ढूँड रही हूँ ऐ जान-ए-तमन्ना तिरे दामन से लिपट कर बहते हुए अश्कों का सिला ढूँड रही हूँ कट जाएँ किसी तौर ग़म-ए-हिज्र की रातें फ़ुर्क़त है मगर वस्ल तिरा ढूँड रही हूँ निकले न कोई नूर चराग़ों के बदन से मैं तेज़ हवाओं की रिदा ढूँड रही हूँ