मता-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र रहा हूँ मिसाल-ए-ख़ुशबू बिखर रहा हूँ मैं ज़िंदगानी के मारके में हमेशा ज़ेर-ओ-ज़बर रहा हूँ शफ़क़ हूँ सूरज हूँ रौशनी हूँ सलीब-ए-ग़म पर उभर रहा हूँ सजाओ रस्ते बिछाओ काँटे कि पा-बरहना गुज़र रहा हूँ न ज़िंदगी है न मौत है ये न जी रहा हूँ न मर रहा हूँ जो मेरे अंदर छुपा हुआ है उस आदमी से भी डर रहा हूँ वो मेरे अपने ही ग़म थे 'साबिर' कि जिन से मैं बे-ख़बर रहा हूँ