मता-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म के पैमाने तिरी आँखें फ़रिश्तों को बना देती हैं दीवाने तिरी आँखें जहान-ए-रंग-ओ-बू उलझा हुआ है उन के डोरों में लगी हैं काकुल-ए-तक़दीर सुलझाने तिरी आँखें इशारों से दिलों को छेड़ कर इक़रार करती हैं उठाती हैं बहार-ए-नौ के नज़राने तिरी आँखें वो दीवाने ज़माम-ए-लाला-ओ-गुल थाम लेते हैं जिन्हें मंसूब कर देती हैं वीराने तिरी आँखें शगूफ़ों को शरारों का मचलता रूप देती हैं हक़ीक़त को बना देती हैं अफ़्साने तिरी आँखें