मताअ-ओ-माल जो ले जाए तो ग़नीमत है वो अपनी जान बचा लाए तो ग़नीमत है फलों का आएगा मौसम तो फल भी आएँगे दरख़्त देता रहे साए तो ग़नीमत है कभी तो उम्र गुज़र जाती है नहीं आती शुऊ'र वक़्त पे आ जाए तो ग़नीमत है कभी जो दर्द में डूबी हुई सदा उभरे समाअ'तों से न टकराए तो ग़नीमत है ये ग़म जो उस ने दिया है हुनर से मेरे 'शकील' मिज़ाज-ए-शे'र में ढल जाए तो ग़नीमत है