मौजा-ए-दर्द से जिस्मों में रवानी दे जा ख़ुश्क दरियाओं नदी नालों को पानी दे जा कुछ तो समझा दे तिलिस्मात-ए-शब-ओ-रोज़ मुझे इन हिसारों में कोई बाब-ए-मआ'नी दे जा ज़ुल्मत-ए-हब्स दिल-ओ-जाँ में जला शम्अ' हुआ तू कहीं है तो मुझे अपनी निशानी दे जा मैं सुबुक-सैर सही मुझ को तू पुर-ख़स न बना इन हवाओं में मुझे थोड़ी गिरानी दे जा ना-मुकम्मल है कोई बाब-ए-चमन जिन के बग़ैर क़िस्सा-ए-गुल के वो औराक़-ए-ख़िज़ानी दे जा कब से बे-आब हैं आईने मिरी आँखों के उन नए चेहरों में कुछ शक्लें पुरानी दे जा आग बरसाते हुए दिन की हदें बाँध कभी गर्म शामों में कोई शाम सुहानी दे जा हर घड़ी दिल से गुरेज़ाँ हैं उमीदें 'शाहीं' इन मकीनों को ज़रा शौक़-ए-मकानी दे जा