मौज-ए-दरिया पे छा रहा है ये कौन सेज पर रसमसा रहा है ये कौन सुब्ह पनघट पे हो रही है तुलूअ' रुख़ से काकुल हटा रहा है ये कौन अध-खुली अँखड़ियों को मल मल कर जू-ए-पुल में नहा रहा है ये कौन बोझल अन्फ़ास के तलातुम से बे-सदा झनझना रहा है ये कौन आँच गोया हवा में ज़ेर-ओ-ज़बर नींद में सनसना रहा है ये कौन सत्ह-ए-दरिया पे चाँदनी जैसे चौंक कर मुस्कुरा रहा है ये कौन करवटों के गिराए तकियों को कसमसा कर उठा रहा है ये कौन रू-ए-ना-शिpुस्ता के धुँदलके में रस की बूँदें गिरा रहा है ये कौन एक अंगड़ाई से दो-आलम को रागनी में झुला रहा है ये कौन नींद की रौ में शम्अ' के मानिंद सुब्ह को झिलमिला रहा है ये कौन शर्म से चम्पई कलाई में सब्ज़ चौड़ी घुमा रहा है ये कौन दैर-ए-सुब्ह-ए-बहार की ज़ंजीर रंग-ए-रुख़ से हिला रहा है ये कौन अँखड़ियाँ जल्द जल्द झपका कर सुर्ख़ डोरे बजा रहा है ये कौन कर्दगारा मिरे दर-ए-दिल को सुब्ह-दम खटखटा रहा है ये कौन तेग़ दोशीज़गी के पानी से आग दिल में लगा रहा है ये कौन तह-ब-तह कर के बीच की उँगली बंद मुट्ठी बजा रहा है ये कौन ज़ेर-ए-दंदाँ दबा के सुर्ख़ अंगुश्त उम्र अपनी बता रहा है ये कौन जो बहुत दूर जा चुका था उसे पास अपने बुला रहा है ये कौन अहद-ए-शेब-ओ-शबाब के माबैन फ़ासलों को हटा रहा है ये कौन गुल पड़ा है जो एक मुद्दत से उस दिए को जला रहा है ये कौन सो चुकी है जो इक ज़माने से इस ख़लिश को जगा रहा है ये कौन मेरी सेहत से बद-मज़ा हो कर रोग दिल को लगा रहा है ये कौन एक मुद्दत से जो मुफ़क्किर है उस को मुतरिब बना रहा है ये कौन मुझ से मग़रूर-ओ-बद-दिमाग़ का सर अपने दर पर झुका रहा है ये कौन कोरी आँखों के ताज़ा अश्कों से इक नया गुल खिला रहा है ये कौन सोज़-ए-पिन्हाँ में ढाल कर मुखड़ा साज़ मेरे हिला रहा है ये कौन अक़्ल के क़सर-ए-बे-नियाज़ी पर नाज़ के घन चला रहा है ये कौन मेरी दानिश-वरी के लोहे को ताब-ए-रुख़ से गला रहा है ये कौन मुझ में इक गूना बे-रुख़ी पा कर ख़ुद-कुशी से डरा रहा है ये कौन 'जोश' मेरे खंडर को अज़-सर-ए-नौ राजधानी बना रहा है ये कौन