मौज-ए-हवा की ज़ंजीरें पहनेंगे धूम मचाएँगे तन्हाई को गीत में ढालेंगे गीतों को गाएँगे कंधे टूट रहे हैं सहरा की ये वुसअत भारी है घर जाएँ तो अपनी नज़र में और सुबुक हो जाएँगे परछाईं के इस जंगल में क्या कोई मौजूद नहीं इस दश्त-ए-तन्हाई से कब लोग रिहाई पाएँगे ज़मज़म और गंगा-जल पी कर कौन बचा है मरने से हम तो आँसू का ये अमृत पी के अमर हो जाएँगे जिस बस्ती में सब वाक़िफ़ हों वो बस्ती इक ज़िंदाँ है वहशत की फ़स्ल आएगी तो हम कितना घबराएँगे आज जो इस बेदर्दी से हँसता है हमारी वहशत पर इक दिन हम उस शहर को 'राही' रह रह कर याद आएँगे