मौज-ए-हवा से फूलों के चेहरे उतर गए गिल हो गए चराग़ घरौंदे बिखर गए पेड़ों को छोड़ कर जो उड़े उन का ज़िक्र क्या पाले हुए भी ग़ैर की छत पर उतर गए यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे हम तो समझ रहे थे सभी ज़ख़्म भर गए हम जा रहे हैं टूटते रिश्तों को जोड़ने दीवार-ओ-दर की फ़िक्र में कुछ लोग घिर गए चलते हुओं को राह में क्या याद आ गया किस की तलब में क़ाफ़िले वाले ठहर गए जो हो सके तो अब के भी सागर को लौट आ साहिल के सीप स्वाती की बूँदों से भर गए इक एक से ये पूछते फिरते हैं अब 'निज़ाम' वो ख़्वाब क्या हुए वो मनाज़िर किधर गए