मौज-ए-हवा तो अब के अजब काम कर गई उड़ते हुए परिंदों के पर भी कतर गई आँखें कहीं दिमाग़ कहीं दस्त ओ पा कहीं रस्तों की भीड़-भाड़ में दुनिया बिखर गई कुछ लोग धूप पीते हैं साहिल पे लेट कर तूफ़ान तक अगर कभी इस की ख़बर गई निकले कभी न घर से मगर इस के बावजूद अपनी तमाम उम्र सफ़र में गुज़र गई देखा उन्हें तो देखने से जी नहीं भरा और आँख है कि कितने ही ख़्वाबों से भर गई जाने हवा ने कान में चुपके से क्या कहा कुछ तो है क्यूँ पहाड़ से नद्दी उतर गई सूरज समझ सका न इसे उम्र भर 'निज़ाम' तहरीर रेत पर तो हवा छोड़ कर गई