मौसम आने पे शजर बौर से भर जाता है जाने किस ओर मगर सारा समर जाता है आ के बैठे हो तुम और वक़्त-ए-सहर आ पहुँचा किस क़दर जल्द भला वक़्त गुज़र जाता है जब भी बेटी की जुदाई का समाँ सोचता हूँ एक ख़ंजर मिरे सीने में उतर जाता है तू ने देखा ही नहीं मुड़ के ज़रा ऐ ख़ूबाँ कोई कूचे से तिरे ख़ाक-ब-सर जाता है ग़म न कर तू जो तड़पता हूँ मैं गाहे गाहे जाते जाते ही मोहब्बत का असर जाता है कैसी तासीर है इस हुस्न-ए-फ़ुसूँ-साज़ की भी कोई जीता है कोई देख के मर जाता है इक ज़रूरत ने झुकाया मुझे किस किस दर पर मिरे अंदर ये कोई सोच के मर जाता है कैसी मुश्किल में मुझे डाल दिया ऐ दौराँ मैं कि दस्तार बचाता हूँ तो सर जाता है