मौसम के मुताबिक़ कोई सामाँ भी नहीं है और रुत के बदल जाने का इम्काँ भी नहीं है ढूँडो तो ख़ुशी का कोई पल हाथ न आए देखो तो यहाँ कोई परेशाँ भी नहीं है रिश्ते में वो पहली सी तड़प अब नहीं मिलती हाँ यूँ तो ब-ज़ाहिर वो गुरेज़ाँ भी नहीं है बस छत के शिगाफ़ों को पड़े घूरते रहिए यारा भी नहीं महफ़िल-ए-याराँ भी नहीं है फिर क्यूँ न उसे हमदम ओ हम-ज़ाद बना लें जब यूँ है कि इस दर्द का दरमाँ भी नहीं है वो वक़्त भी था हम को ज़माने की ख़बर थी अब यूँ है कि एहसास-ए-रग-ए-जाँ भी नहीं है अब क़त्ल की ख़बरों का वो आलम है कि 'अरशद' सुन कर कोई हैरान ओ परेशाँ भी नहीं है