मौसम-ए-हिज्र में ज़ख़्मों से लदा रहता है दिल वो पौधा के जो पतझड़ में हरा रहता है बस ये इक बात मुझे लाती है नज़दीक तिरे तू भी तो मेरी तरह ख़ुद से ख़फ़ा रहता है तब्सिरा इतना ही काफ़ी है मोहब्बत के लिए मुख़्तसर सौदे में नुक़सान बड़ा रहता है हम से बेहतर है मुक़द्दर में सियाह पत्थर जो बन के सुर्मा तिरी पलकों से लगा रहता है क्या क़सीदा तिरे रुख़्सार के तिल का यूँ समझ इक नगीना है अँगूठी में जड़ा रहता है दर-ओ-दीवार सिसकते है कमी पर तेरी घर में ख़ामोशी का इक शोर बपा रहता है उस की आँखें है या आबाद कुएँ है 'आٖफ़ी' आब-ए-ग़म जिन में मुसलसल ही भरा रहता है