मौत आई है ज़माने की तो मर जाने दो कम से कम उस की जवानी तो गुज़र जाने दो जाग उट्ठेंगे हम अभी ऐसी ज़रूरत क्या है धूप दीवार से कुछ और उतर जाने दो मुद्दतें हो गईं इक बात मिरे ज़ेहन में है सोचता हूँ तुम्हें बतलाऊँ मगर जाने दो गर्दिश-ए-वक़्त का कितना है कुशादा आँगन अब तो मुझ को इसी आँगन में बिखर जाने दो ख़ुश-नसीबी से इधर आतिश-ए-ग़म ख़ूब है तेज़ दोस्तो अब मिरी हस्ती को निखर जाने दो कोई मंज़िल नहीं रह जाएगी सर होने को आदमी को ज़रा अल्लाह से डर जाने दो तोड़ दो बढ़ के ये मफ़रूज़ा वफ़ाओं के हिसार दिल की आवाज़ जिधर जाए उधर जाने दो वक़्त के हाथ का फेंका हुआ पत्थर हूँ मैं अब तो मुझ को किसी शीशे में उतर जाने दो उलझनें ख़त्म न क्यूँ होंगी ज़माने की 'अलीम' उन के उलझे हुए गेसू तो सँवर जाने दो