मौत से यारी न थी हस्ती से बे-ज़ारी न थी उस सफ़र पर चल दिए हम जिस की तय्यारी न थी हम उसी की ख़ाक से उठ्ठे हैं कुंदन बन के आज दोस्तो जिस शहर में रस्म-ए-वफ़ादारी न थी हम ने ख़ून-ए-आरज़ू दे कर मुनक़्क़श कर दिया वर्ना दीवार-ए-तलब पर ऐसी गुल-कारी न थी मर गए सर फोड़ के दीवार-ए-ज़िंदाँ से असीर ज़िंदगी कुंज-ए-क़फ़स में मौत से प्यारी न थी अब शिकस्त-ए-आरज़ू है बाइ'स-ए-तस्कीन-ए-दिल इस से पहले तो कभी ये कैफ़ियत तारी न थी जल रहा है हर नफ़्स अब अपने ग़म की आँच से साँस लेने में कभी 'मोहसिन' ये दुश्वारी न थी