मय-कदा मेरे लिए जा-ए-तसादुम तो नहीं लाख नश्शा है मगर होश मिरे गुम तो नहीं मो'तरिज़ क्यूँ है ज़माना मिरी बेताबी पर ख़ामुशी की ही अदा है ये तकल्लुम तो नहीं क्यूँ सफ़ीना मिरी हस्ती का हो ग़र्क़ाब-ए-फ़ना जज़्र-ओ-मद दिल का है दरिया का तलातुम तो नहीं अब ख़ता-कोश न हों मुझ को ये तंबीह भी है ऐ ख़ता-पोश ये कुछ शान-ए-तरह्हुम तो नहीं उस की फ़रियाद का क्यूँ तुम पे असर होता है और कोई है 'मुनव्वर' का ख़ुदा तुम तो नहीं