मय-कशी छोड़ दी तौहीन-ए-हुनर कर आया जाम उलटाए सुबू ज़ेर-ओ-ज़बर कर आया जब वो दीवार गिरी थी तो ये दर क्यूँ रहता बस यही सोच के मिस्मार वो घर कर आया दश्त-ए-इम्कान में तन्हा मैं कहाँ तक जाता जब गुमाँ भी न रहा तर्क सफ़र कर आया एक उम्मीद का आलम है कि थकता ही नहीं बार-ए-एहसान से भी सर्फ़-ए-नज़र कर आया राह दुश्वार थी और इस के तग़ाफ़ुल का यक़ीं शुक्र-ए-अल्ताफ़ कि ये मा'रका सर कर आया वहशत-ए-ज़ीस्त मुबारक तिरी साबित-क़दमी दाग़ भरता रहा क़तरे को गुहर कर आया नावक-ए-नाज़ तिरी ख़ैर कि इश्क़-ए-ख़ुश-नूद ख़ुद-नुमाई के लिए ख़ून-ए-जिगर कर आया मुझ से बेहतर तो मिरा ख़्वाब था झूटा ही सही तिरे पहलू में जो इक रात बसर कर आया हम समझते थे जिसे हमदम-ओ-हमराज़ अपना वो ही 'सलमान' हरीफ़ों को ख़बर कर आया